Thursday 3 January 2008

जाने पहचाने लोग

एक एक आदमी की तलाशी ली जा रही थी

ठंडे लोहे की नाल फौजियों के दाहिने कंधे के पीछे किसी भाले की तरह निकली दिखतीं थींउन सभी ने लोहे के हेलमेट पहन रखे थेउनके चेहरे पर शक थाआंखों में जीत का नशालाइन में खडे लोगों को एक एक करके किसी बडे परदे के पीछे भेजा जा रहा था

वहाँ उन सबको मार डाला जाएगा
वो सब डरे हुए थेपर इस उम्मीद पर सांस ले रहे थे कि शायद, शायद किसीको उन पर रहम जायेवो सब युद्ध अपराधी थेथे नही पर मान लिए गए थेवो सब अपने ही पहाडों को, पोखरों को, खेतों को आख़िरी बार देख रहे थे

क्रूरता से मुस्कुराते हुए एक फौजी ने आख़िर हमें भी परदे के पीछे जाने को कहा.

पिता साथ थे शायदमाँ कहाँ थी? कहाँ था भाई? पड़ोस के लोग कहाँ थे? जिनका फैसला होना था वो इतने अजनबी क्यों दिखते थे? यह हम कहाँ गए थेकितनी नयी जगह थी येकिसीने कुछ कहा नही, कुछ दिखा भी नहीं, फिर भी यह क्यों लगने लगा कि यही वो जगह है कुछ ही देर पहले क़त्ल--आम हुआ हैकुछ ही देर पहलेशायद उन्हीं फौजियों ने किया हो जिनका अब यहाँ पर कब्जा है.

सामने एक गली थीजहाँ सन्नाटा थादूर एक फौजी सड़क पार करता दिखाफिर खामोशीपिता ने कहा - "वो जापानियों का इलाका है।" इशारा था कि यहीं पर मारे गए हैं लोगपर कोई लाश दिखती नही थीहम फौजियों के साथ चले जाते थे

फिर टूटे या तोड़ दिए गए दरवाज़े नज़र आयेदरवाजों के पार दालान दिखाई दिएदालान खली नही थेवाहन लाशें थींढेर की ढेर

यह सब जाने-पहचाने लोग थे

Friday 20 April 2007

मैं आ गया हूँ !

एक स्पष्टीकरणः कई महीने पहले आपने जो पढ़ा (नीचे पढ़िए) वह मैंने नहीं लिखा था। उसे लिखने वाले हमारे मित्र और शुभचिंतक अनामदास ही रहना चाहते हैं। उन्होंने जो लिखा उसमें सुधार कर लीजिए। न मैंने दुनिया बहुत देखी और न ही मैं अनुभव बाँटने के उद्देश्य से यहाँ आया हूँ। इस बात पर भी कोई वज़न नहीं कि मेरी लिखी बातों की क़द्र की जाए। एक घोषणा ये कि इस ब्लॉग पर सेंसर की कैंची नहीं चलेगी। अगर निहायत ही ग़ैरज़रूरी तौर पर गुप्तांगों का ज़िक्र न किया गया हो तो मुझे पड़ने वाली गालियाँ भी यहाँ प्रकाशित होंगी। आदिविद्रोही मेरे प्रिय ऐतिहासिक पात्रों में से है इसलिए उन अनामदास बंधु का दिया ये नाम मैं बदल नहीं रहा हूँ। लेकिन न तो तलवार भाँजने का दावा है, न कम्प्यूटर की स्क्रीन से झंझावात उठाने का इरादा।

दो हज़ार सात की आख़िरी तारीख़ है आज -- 31 दिसंबर. उम्मीद है अगले साल भी मिलेंगे.

(ये थी वो घोषणा जो हमारे मित्र ने हमारी ओर से कर दी थी.)

बहुत हो गया, बहुत कर ली नौकरी. बहुत कमा ली दिहाड़ी. अब आप लोगों से बात करने का समय आ गया है. मैंने रामझरोखे बैठकर बहुत दुनिया देखी है अब आपके साथ कुछ अनुभव बाँटना चाहता हूँ. आप लोग पढ़े-लिखे आदमी हैं, ब्लॉगर हैं, आप शायद मेरी बातों की कद्र करेंगे. मैं हर रोज़ तो नहीं लेकिन दो-चार दिन में एक ब्लॉग लिखने की कोशिश करूँगा. मेरा नाम मेरे चरित्र के अनुरूप है और मैं यहाँ जो कुछ लिखूँगा उसी के ज़रिए जाने जाने की इच्छा है.

मैं अपने विचार खुलकर लिखूंगा और आप अपनी प्रतिक्रिया खुलकर दीजिएगा.

जल्द आ रहा है, इंतज़ार कीजिए.