एक एक आदमी की तलाशी ली जा रही थी।
ठंडे लोहे की नाल फौजियों के दाहिने कंधे के पीछे किसी भाले की तरह निकली दिखतीं थीं। उन सभी ने लोहे के हेलमेट पहन रखे थे। उनके चेहरे पर शक था। आंखों में जीत का नशा। लाइन में खडे लोगों को एक एक करके किसी बडे परदे के पीछे भेजा जा रहा था।
वहाँ उन सबको मार डाला जाएगा।
वो सब डरे हुए थे। पर इस उम्मीद पर सांस ले रहे थे कि शायद, शायद किसीको उन पर रहम आ जाये। वो सब युद्ध अपराधी थे। थे नही पर मान लिए गए थे। वो सब अपने ही पहाडों को, पोखरों को, खेतों को आख़िरी बार देख रहे थे।
वो सब डरे हुए थे। पर इस उम्मीद पर सांस ले रहे थे कि शायद, शायद किसीको उन पर रहम आ जाये। वो सब युद्ध अपराधी थे। थे नही पर मान लिए गए थे। वो सब अपने ही पहाडों को, पोखरों को, खेतों को आख़िरी बार देख रहे थे।
क्रूरता से मुस्कुराते हुए एक फौजी ने आख़िर हमें भी परदे के पीछे जाने को कहा.
पिता साथ थे शायद। माँ कहाँ थी? कहाँ था भाई? पड़ोस के लोग कहाँ थे? जिनका फैसला होना था वो इतने अजनबी क्यों दिखते थे? यह हम कहाँ आ गए थे। कितनी नयी जगह थी ये। किसीने कुछ कहा नही, कुछ दिखा भी नहीं, फिर भी यह क्यों लगने लगा कि यही वो जगह है कुछ ही देर पहले क़त्ल-ए-आम हुआ है। कुछ ही देर पहले। शायद उन्हीं फौजियों ने किया हो जिनका अब यहाँ पर कब्जा है.
सामने एक गली थी। जहाँ सन्नाटा था। दूर एक फौजी सड़क पार करता दिखा। फिर खामोशी। पिता ने कहा - "वो जापानियों का इलाका है।" इशारा था कि यहीं पर मारे गए हैं लोग। पर कोई लाश दिखती नही थी। हम फौजियों के साथ चले जाते थे।
फिर टूटे या तोड़ दिए गए दरवाज़े नज़र आये। दरवाजों के पार दालान दिखाई दिए। दालान खली नही थे। वाहन लाशें थीं। ढेर की ढेर।
यह सब जाने-पहचाने लोग थे।
2 comments:
आपका दो चार दिन कबायेगा कि हम आपका लिखा पढ़ने को बेताब हैं,कुछ तो कहिये..ऐसे कैसे चलेगा
आदिविद्रोही,
आपने लगभग एक साल से कुछ नहीं लिखा है, ब्लॉग शुरू कीजिए, अपने विचारों को साझा कीजिए
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